उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 भारत में उपभोक्ता मामले के विकास में मील का पत्थर साबित हुआ हैं। वास्तव में किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उसके बाजार के चारों ओर घूमती है। जब बाजार विक्रेता का होता है तोउपभोक्ताओं का अधिकतम शोषण होता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 बनने से पहले तक भारत में विक्रेता बाजार था। 1986 के बाद से उपभोक्ता संरक्षण भारत में गति पकड़ने लगा है ।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 जिसकी अधिकारिकता जम्मू-कश्मीर को छोड कर समस्त भारत वर्ष में है ।
अधिनियम के प्रावधानों को सफल बनाने के लिए उसके उपबंधों का अर्थ उपभोक्ता के पक्ष में निकाला गया है, क्योंकि यह विधि सामाजिक सुविधा हेतु बनायी गयी है।
अधिनियम की धारा 2(i) (d) मैं उपभोक्ता को परिभाषित किया गया है, परिभाषा को दो खंडों में विभाजित किया गया है प्रथम खंड माल के क्रेता से संबंध रखता है जबकि द्वितीय खंड मैं किराए /भाड़े पर ली गई सेवाओं के संबंध में प्रावधान किए गए हैं ।
प्रथम खंड के अनुसार वस्तुओं के मामले में उपभोक्ता से अभिप्राय उस व्यक्ति से है जो उसे खरीदता है और उसका मुल्य अदा करता है, इस संबंध में वस्तु की पूर्ण कीमत देने वाला आंशिक कीमत देने वाला या उधार खरीद करने वाला भी उपभोक्ता माना जाएगा,
परंतु वह व्यक्ति जो किसी वस्तु को पुनःबिक्री के लिए व्यापारिक उद्देश्य से खरीदता है तो वह उपभोक्ता नहीं होगा! फिर भी स्व रोजगार या जीविको पार्जन के साधन के रूप में अगर किसी वस्तुओं को खरीदा जाता है तो खरीददार उपभोक्ता की श्रेणी में आएगा ।
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