जानिए अतीत की दण्ड व्यवस्था क्या थी |Know what was the punishment system of the past in india
भारत में दण्ड के विकास की यात्रा अत्यंत लम्बी है | भारत की दण्ड व्यवस्था के निर्मम एवं बर्बर दण्ड से परिवीक्षा एवं भर्तसना जैसे सुधारात्मक दण्ड तक का सफ़र तय किया है | अतीत की दण्ड व्यवस्था अत्यंत निर्मम एवं बर्बर रही है यहाँ निम्न प्रकार के दण्ड दिए जाते रहे है –
कोड़े मारना- यह दण्ड साधारणतः महिलाओ की लज्जा भंग करने, नशा खोरी, आवारागर्दी, ठगी जैसे मामलो में दिया जाता था, कोड़ो की संख्या न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करती थी | बर्बर दण्ड होने के कारण कालान्तर में इसे समाप्त कर दिया गया |
अंग-विच्छेद करना – अंग विच्छेद अर्थात अंगभंग के दंड की व्यवस्था भी अत्यन्त प्राचीन है, भारत और अन्य यूरोपीय देशों में यह दंड प्रचलित था, इस दंड व्यवस्था के मुख्यतः दो उद्देश्य थे :-
- अपराधों का प्रतिरोध करना
- प्रतिशोध अर्थात बदला लेना
यह दंड सामन्यतः चोरी,व्यभिचारी जैसे अपराधों में दिया जाता था चोरी के अपराध में अपराधी के हाथ काट दिए जाते थे, व्याभिचार के मामले में गुप्तांग काट देने तक की प्रथा थी |
दागना- यह दंड भी अत्यंत पुराना है इस दण्ड के अंतर्गत अपराधी के शरीर पर या सिर पर लोहे की गर्म छड़ दागी जाती थी |
कुछ समय पूर्व पंजाब पुलिस द्वारा चोरी का अपराध कारित करने वाली माहिलाओ के ललाट पर “मै चोर हूँ ’’ गोद दिया जाता था |
हाथ पैर जकड़ देना –अतीत में ठंड का एक स्वरूप यह भी रहा है, इसमें अपराधी के हाथ पैर लोहे की चौखट में इस प्रकार जकड़ दिए जाते थे कि वह हिल-डुल नहीं सके | अपराधी को दिवार में चुनकर दण्डित किया जाता था, ऐसा दण्ड सामान्यतः जारता, बलात्कार, व्यभिचार जैसे अपराधो में दिया जाता था |
काले पानी की सजा- इस दंड व्यवस्था में अपराधी को दूरस्थ समुद्री क्षेत्रों में निर्वासित कर दिया जाता था ताकि वह समाज से पृथक रह सके |
एकांत कारावास- इसमें अपराधियों को समाज से दूर एकांत कारावास में रखा जाता था, यह दंड अत्यंत असहनीय होता था, क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के नाते एकांतवास की पीड़ा को सहन नहीं कर पाता था | भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 73 एवं 74 में भी एकांत परिरोध के रूप में इस दंड की व्यवस्था की गई है इसके अलावा और भी कई तरह के दण्ड दिए जाते रहे है, जैसे-गर्म खोलते हुए पानी में डाल देना जंगली जानवरों के समक्ष फेंक देना आदि भी दण्ड का स्वरूप रहा है |
वर्तमान समय में भारतीय दण्ड व्यवस्था के प्रावधान :-(At present, provisions of Indian penal system): –
भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 53 में निम्न प्रकार के दण्ड का प्रावधान किया गया है
- मृत्युदंड– यह दण्ड गंभीरतम अपराधो में दिया जाता है, जनसाधारण की भाषा में इसे फांसी की सजा कहा जाता है | भारतीय दण्ड संहिता 1860 (Indian Penal Code) की निम्न धाराओ-(121, 132, 194, 302, 305, 396, 307) के अंतर्गत मृत्युदंड दिया जाता है |
- आजीवन कारावास- इसका अभिप्राय अपराधी जब तक जीवित रहता है तब तक का कारावास| दण्ड की गंभीरता की दृष्टी से आजीवन कारावास का मृत्यु दण्ड के बाद दुसरा स्थान है | लेकिन भारतीय दण्ड संहिता की धारा 57 के अंतर्गत इसे 20 वर्ष तक की अवधि का कारावास माना गया है |
- कारावास-कठोर एवं साधारण– साधारण कारावास में अपराधियों को काराग्रह में बंद रखा जाता है,तथा कठोर कारावास के दण्ड में अपराधियों से कराग्रहो में कठिन श्रम कराया जाता है, जैसे-चक्की चलाना,मिटटी खोदना, पानी खीचना, लकड़ी काटना आदि |
- सम्पति का समपहरण- इस दण्ड के अंतर्गत अपराधी की सम्पति को जब्त कर लिया जाता है, प्राचीन समय में इस दण्ड का काफी प्रचालन था | भारतीय दण्ड संहिता 1860 की निम्न धाराओ 126,127,169 में अपराध कारित करने पर यह दण्ड दिया जाता है |
- जुरमाना- यह एक सामान्य प्रकृति का दण्ड है, साधारण अपराधो के लिए अपराधी को अर्थदंड अर्थात जुर्माने से दण्डित किये जाने की व्यवस्था सभी देशो में है |
- एकांत परिरोध- भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 73 एवं 74 में एकांत परिरोध दंड की व्यवस्था की गई है |
अतीत की दण्ड व्यवस्था एवं वर्तमान की दण्ड व्यवस्था के मुकाबले समाज में बढ़ते हुए अपराधो को कम करने के लिए किस प्रकार की दण्ड व्यवस्था होनी चाहिए ? (In comparison to the punishment system of the past and the punishment system of the present, what kind of punishment system should be there to reduce the increasing crimes in the society?)
“उद्वेजयति तीक्ष्णेनप, मृदुना परिभूयते,
तस्ताद्यथार्हतो दण्ड: जयेतपक्ष मनाश्रितः।।
आचार्य कौटिल्य जी कहते हैं कि “अधिक कठोरतम दण्ड से प्रजा विचलित होती है, और कोमल दण्ड से प्रजा तिरस्कार करने लगती है, अतः दण्ड की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।“
भारत की वर्तमान व्यवस्था में दण्ड की यह नवीनतम अवधारणा है कि “अपराधी से नहीं अपराध से घृणा करे”| धारणा यह है कि व्यक्ति जन्म से अपराधी नहीं होता | वह तो परिस्थितिया है जो उसे अपराधी बना देती है | अतः ऐसी परिस्थितियों को दूर करने तथा अपराधी को सुधरने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए | तथा परिवीक्षा भर्त्सना एवं पेरोल जैसे सुधारात्मक उपायों को अपनाने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए |
अगर अपराधी सुधारात्मक उपायों को अपनाने के बाद भी अपराध करने की कोशिश करे तो कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए, जिसके अंतर्गत प्राचीन दण्ड व्यवस्था को भी शामिल किया जाना चाहिए, जिससे की अपराधी दुबारा अपराध करने से कतराए व अपराध करने से पहले 100 बार सोचे |